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"महाप्राण निराला मस्तमौला, यायावर तो थे ही, फकीरी में भी दानबहादुरी ऐसी कि जेब का आखिरी आना-पाई तक मुफलिसों को लुटा आते थे। नया रजाई-गद्दा रेलवे स्टेशन के भिखारियों को दान कर खुद थरथर जाड़ में फटी रजाई तानकर सो जाते थे।"
"श्रीनारायण चुतर्वेदी के साथ निरालाजी के कई प्रसंग जुड़े हैं। लोग चतुर्वेदीजी को सम्मान से 'भैयाजी' कहकर संबोधित करते थे। वह कवि-साहित्यकारों को मंच दिलाने से लेकर उनकी रचनाओं के प्रकाशन, आतिथ्य, निजी आर्थिक जरूरतें पूरी कराने तक में हर वक्त तत्पर रहते थे।"
जीवन की ऐसी विसंगतियां-उलटबासियां शायद ही किसी अन्य महान कवि-साहित्यकार की सुनने-पढ़ने को मिलें, जैसी की महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में। सुख-दुख की ऐसी कई अनकही-अलिखित-अपठित गाथाएं उनके जीवन से जुड़ी हैं। वह मस्तमौला, यायावर तो थे ही, लाख फटेहाली में भी जेब का आखिरी आना-पाई तक दान कर देते थे। उत्तर प्रदेश के शीर्ष शिक्षाधिकारी रहे साहित्यकार श्रीनारायण चतुर्वेदी के ठिकाने पर वह अक्सर लखनऊ पहुंच जाया करते थे। और वहां कब तक रहेंगे, कब अचानक कहीं और चले जाएंगे, कोई तय नहीं होता था। श्रीनारायण चुतर्वेदी के साथ निरालाजी के कई प्रसंग जुड़े हैं। लोग चतुर्वेदीजी को सम्मान से 'भैयाजी' कहकर संबोधित करते थे। वह कवि-साहित्यकारों को मंच दिलाने से लेकर उनकी रचनाओं के प्रकाशन, आतिथ्य, निजी आर्थिक जरूरतें पूरी कराने तक में हर वक्त तत्पर रहते थे।
सर्दियों का दिन था। कवि-सम्मेलन खत्म होने के बाद एक बार भैयाजी बनारसी, श्यामनारायण पांडेय, चोंच बनारसी समेत चार-पांच कवि सुबह-सुबह चतुर्वेदीजी के आवास पर पहुंचे और सीढ़ी से सीधे पहली मंजिल के उनके कमरे में पहुंचते ही अंचंभित होते हुए एक स्वर में चतुर्वेदीजी से पूछा - 'भैयाजी नीचे के खाली कमरे में फर्श पर फटी रजाई ओढ़े कौन सो रहा है? सिर तो रजाई में लिपटा है और पायताने की फटी रजाई से दोनों पांव झांक रहे हैं।' चतुर्वेदीजी ने ठहाका लगाते हुए कहा - 'अरे और कौन होगा! वही महापुरुष हैं।... निरालाजी। ... क्या करें जो भी रजाई-बिछौना देता हूं, रेलवे स्टेशन के भिखारियों को बांट आते हैं। अभी लंदन से लौटकर दो महंगी रजाइयां लाया था। उनमें एक उनके लिए खरीदी थी, दे दिया। पिछले दिनो पहले एक रजाई और गद्दा दान कर आए। दूसरी अपनी दी, तो उसे भी बांट आए। फटी रजाई घर में पड़ी थी। दे दिया कि लो, ओढ़ो। रोज-रोज इतनी रजाइयां कहां से लाऊं कि वो दान करते फिरें, मैं इंतजाम करता रहूं।'
इसके बाद छत की रेलिंग पर पहुंचकर मुस्कराते हुए चतुर्वेदी जी ने मनोविनोद के लिए इतने जोर से नीचे किसी व्यक्ति को कवियों के नाश्ते के लिए जलेबी लाने को कहा, ताकि आवाज निरालाजी के भी कानों तक पहुंच जाए। जलेबी आ गई। निरालाजी को किसी ने नाश्ते के लिए बुलाया नहीं। गुस्से में फटी रजाई ओढ़े वह स्वयं धड़धड़ाते कमरे से बाहर निकले और मुंह उठाकर चीखे - 'मुझे नहीं खानी आपकी जलेबी।' और तेजी से जलेबी खाने रेलवे स्टेशन निकल गए। इसके बाद ऊपर जोर का ठहाका गूंजा। लौटे तो वह फटी रजाई भी दान कर आए थे।
निरालाजी चाहे कितने भी गुस्से में हों, चतुर्वेदीजी की कदापि, कभी तनिक अवज्ञा नहीं करते थे। एक बार क्या हुआ कि, कवि-सम्मेलन में संचालक ने सरस्वती वंदना (वर दे वीणा वादिनी..) के लिए निरालाजी का नाम माइक से पुकारा। वह मंच की बजाए, गुस्से से लाल-पीले श्रोताओं के बीच जा बैठे थे। मंच पर हारमोनियम भी रखा था। पहले से तय था, सरस्वती वंदना का सस्वर पाठ निरालाजी को ही करना है, लेकिन उन्हें बताया नहीं गया था। निरालाजी बैठे-बैठे जोर से चीखे- 'मैं नहीं करूंगा सरस्वती वंदना।' इसके बाद एक-एक कर मंचासीन दो-तीन महाकवियों ने उनसे अनुनय-विनय किया। निरालाजी टस-से-मस नहीं। मंच पर श्रीनारायण चतुर्वेदी भी थे। उन्होंने संचालक से कहा - 'मंच पर आएंगे कैसे नहीं, अभी लो, देखो, उन्हें कैसे बुलाता हूं मैं।' वह निरालाजी को मनाने की कला जानते थे। उन्होंने माइक से घोषणा की - 'निरालाजी आज कविता पाठ नहीं करेंगे। उनकी तबीयत ठीक नहीं है।' तत्क्षण निरालाजी चीखे और उठ खड़े हुए - 'आपको कैसे मालूम, मेरी तबीयत खराब है! सुनाऊंगा। जरूर सुनाऊंगा।' और फिर तो हारमोनियम पर देर तक उनके स्वर गूंजते रहे।
साभार अनिल जनविजय जी 💐🙏
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एक बार हिंदी के महान साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी रॉयल्टी के एक हजार रुपये लेकर, इक्के में बैठकर, इलाहाबाद की एक सड़क पर चले जा रहे थे।
रास्ते में सड़क के किनारे एक बूढ़ी भिखारिन बैठी हुई थी। ढलती उम्र में भी वह हाथ पसार कर भीख मांग रही थी।
उसे देखकर निराला जी ने इक्का रुकवाया और उनके पास गए, और पूछा - ' माई ! आज कितनी भीख मिली ?
बुढ़िया ने जवाब दिया -' सुबह से आज कुछ नहीं मिला बेटा !'
बुढ़िया के इस उत्तर को सुनकर निराला जी सोच में पड़ गए कि बेटे के रहते मां भीख मांग रही है।
एक रुपैया बुढ़िया के हाथ पर रख कर बोले, ' मां अब कितने दिन भीख नहीं मांगोगी ?
तीन दिन बेटा ।
दस रुपये दे दूं तो…?
बीस या पच्चीस दिन ।
सौ रुपये दे दूं तो…?
चार-पांच महीने तक !
चिलचिलाती धूप में सड़क के किनारे मां मांगती गई, बेटा देता गया।
इक्के वाला हक्का-बक्का रह गया।
बेटे की जेब हल्की होती गई और मां के भीख न मांगने की अवधि बढ़ती चली गई।
जब निराला जी ने रुपयों की अंतिम ढेरी भी बुढ़िया की झोली में डाल दी तो बुढ़िया खुशी से चीख उठी और कहने लगी, "अब कभी भी नहीं मांगूंगी बेटा, कभी नहीं।"
निराला जी ने संतोष की सांस ली। बुढ़िया के पैर छुए । बुढ़िया ने उन्हें ढेरों आशीष और दुआएं दी ।
निराला जी इक्के में बैठकर अपने घर की राह पर चल दिए। उनके चेहरे पर एक अजीब संतोष व फक्कड़ता का भाव था।
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कोलंबिया विश्वविद्यालय में गणित के एक कोर्स के दौरान एक छात्र कक्षा में सो गया। जब उसकी नींद खुली, तो उसने देखा कि प्रोफेसर ने व्हाइटबोर्ड पर दो समस्याएँ लिखी थीं। उसने सोचा कि ये होमवर्क हैं, इसलिए वह उन्हें अपनी नोटबुक में नोट कर के घर ले गया।
जब उसने उन समस्याओं को हल करने की कोशिश की, तो वे उसे बेहद कठिन लगीं। लेकिन उसने हार नहीं मानी। घंटों लाइब्रेरी में बैठकर उसने संदर्भ पुस्तकों की मदद से अध्ययन किया और अंततः वह एक समस्या को हल करने में सफल हो गया, भले ही यह काफी चुनौतीपूर्ण था।
अगली कक्षा में प्रोफेसर ने जब होमवर्क के बारे में कुछ नहीं पूछा, तो वह चकित हुआ और खड़ा होकर पूछा, "सर, आपने पिछले लेक्चर में दिए गए असाइनमेंट के बारे में कुछ क्यों नहीं पूछा?"
प्रोफेसर ने उत्तर दिया, "असाइनमेंट? वो तो मैंने केवल ऐसे उदाहरण के तौर पर लिखी थीं जिन्हें अभी तक वैज्ञानिक हल नहीं कर पाए हैं।"
छात्र चौंक गया और बोला, "लेकिन मैंने उनमें से एक को हल कर लिया है! मैंने इस पर चार पेपर भी लिखे हैं।" उसकी इस उपलब्धि को बाद में मान्यता मिली और कोलंबिया विश्वविद्यालय में उसके लिखे चारों पेपर आज भी प्रदर्शित हैं।
इस कहानी की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि छात्र ने यह नहीं सुना था कि "इन समस्याओं का कोई हल नहीं है।" उसने सिर्फ यही माना कि ये कठिन प्रश्न हैं, जिन्हें हल करना ज़रूरी है, और उसने पूरे मन से उन्हें हल करने की कोशिश की – और सफल हुआ।
यह कहानी हमें याद दिलाती है – उन लोगों की बात मत सुनो जो कहते हैं कि तुम कुछ नहीं कर सकते। आज की पीढ़ी अक्सर निराशा और नकारात्मकता से घिरी होती है। कुछ लोग जानबूझकर दूसरों के भीतर असफलता और हार का बीज बोते हैं।
लेकिन तुम्हारे पास अपनी मंज़िल पाने की ताकत है, बाधाओं को पार करने की शक्ति है, और अपने सपनों को साकार करने का साहस है। बस खुद पर विश्वास रखो – और लगातार प्रयास करते रहो।
इस छात्र का नाम था जॉर्ज डैंटज़िग, और यह समस्या Math Stack Exchange से ली गई थी।
"डैंटज़िग ने यह सिद्ध किया कि Student’s t-test के संदर्भ में, एकमात्र तरीका जिससे हम ऐसी hypothesis testing बना सकते हैं जो standard deviation से स्वतंत्र हो, वह है एक निरर्थक परीक्षण, जो हमेशा समान संभावना से रिजेक्ट या एक्सेप्ट करता है जो व्यावहारिक नहीं है।"
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